ब्रितानी हुकूमत में नीलगाय के चमड़े की बनती थी चप्पलें… अब अपना पेशा छोड़ने लगे हैं लोग
पंकज दाऊद @ बीजापुर। ब्रितानी हुकूमत में बस्तर के अकेले टाऊन मद्देड़ में नीलगाय और चीतल के चमड़े की चप्पलें बनाई जाती थीं लेकिन अब तो यहां गाय-बैल के चमड़े की चप्पलें बनना बंद हो गई हैं। कंप्यूटर युग में मद्देड़ की बस्ती के लोग इस पेशे से दूर होते जा रहे हैं।
मद्देड़ की दो तीन बस्तियों में चमार जाति के लोग बसते हैं। इनकी बनाई चप्पलें दूसरे शहरों तक कभी भेजी जाती थीं। इस धंधे से 20 साल पहले ही दूर होेेे चुके पोचैया चिन्नूर बताते हैं कि किसी जमाने में यहां की चप्पलों को बड़ा क्रेज था।
पहले तो इस नगर में नीलगाय और चीतल के चमड़ों की भी चप्पलें बनती थीं। धनाढ्य वर्ग इसे खरीदता था। इसके अलावा यहां गाय, बैल एवं बकरे के चमड़ों की चप्पलें हाल ही तक बन रही थीं।
इस नगर के ही समैया चिपनपल्ली बताते हैं कि वे खुद चप्पल बेचने जगदलपुर जाया करते थे, तब बस किराया दस रूपए था। वहां वे एक जोड़ी चप्पल साठ रूपए में बेचते थे। उस वक्त इन चप्पलों की काफी डिमाण्ड हुआ करती थी।
वे बताते हैं कि बैल के एक चमड़े से तीन जोड़ी चप्पलें तैयार हो जाती हैं। इसमें उपर की पट्टी में बकरे का चमड़ा लगता है। सिलाई भी चमड़े से ही की जाती है। इसमें कील की कोई भूमिका नहीं होती है। चप्पल में चमड़े के अलावा कुछ भी नहीं होता है। अभी एक जोड़ी चप्पल की कीमत 700 रूपए है।
टैनिंग है पूरी तरह हर्बल
इस पेशे से जुड़े लोग बताते हैं कि टैनिंग (चर्मशोधन) पूरी तरह से देसी तरीके से की जाती है। इसमें किसी भी रसायन का इस्तेमाल नहीं होता है। आंवले की पत्तियां और साजा छाल से भरी पानी की टंकी में चमड़े को 15 दिनों के लिए भिगो दिया जाता है। इसके बाद चमड़े को निकालकर धोया जाता है। इसे सूखाकर चप्पलें बनाई जाती हैं।
अब नापंसद क्यों ?
नई पीढ़ी को ये काम पसंद नहीं है। वे इसे सीखना भी नहीं चाहती है। अपने माता-पिता को भी युवा पीढ़ी इस काम को करने से मना करती है।
कई युवा सरकारी नौकरी में भी लग गए हैं। कुछ लोग जो ये काम करना चाहते हैं। वे सरकार की ओर टकटकी लगाए हुए हैं। उन्हें इसके लिए माली मदद की जरूरत है।